राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना का प्रबंध एवं क्रियान्वयन का मूल्यांकन

(रीवा जिले के विशेष सन्दर्भ में)

 

डाॅ. फरीदा खातून

अतिथि विद्वान (वाणिज्य), शासकीय विवेकानंद स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मैहर, जिला सतना (.प्र.)

*Corresponding Author E-mail:

 

ABSTRACT:

कोई भी देश जहाॅ की अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान हो तथा कृषि ही उस देश की जनसंख्या के अधिकांश भाग के भरण-पोषण का एक मात्र आधार हो उस देश की सरकार का यह उत्तरदायित्व होता है कि इसकी उन्नति पर विशेष ध्यान दे। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् अपनी सरकार ने कृषि विकास के महत्व को स्वीकारते हुए योजनाओं मे इसको मुख्य स्थान दिया। कई स्थानों में किसान इस प्रकार की दयनीय स्थिति में है कि उनको दो वक्त की रोटी नसीब नही हो पा रही है और किसानो की सबसे बडी समस्या है उनके द्वारा लिया गया कर्ज जिसके मकड़जाल में किसान इस तरह फंसता है कि वह दूसरा उतर नही पात शायद इसी वजह से कई स्थानों से किसानों की खुदखुशी की खबरे आती है ये घटनायें हमारे राष्ट्र के लिए दुखपूर्ण है। इन किसानों को रिस्क से सुरक्षा प्रदान करने हेतु बीमा की जरूरत है, इस प्रयोजन को रिस्क से सुरक्षा करने हेतु बीमा की जरूरत है, इस प्रयोजन को पूर्ण करने हेतु इस कृषि बीमा योजना को प्रारंभ किया गया है। फलस्वरूप हरित क्रान्ति का सृजन और चलन हुआ, आधुनिक तकनीकी युक्त कृषियन्त्रों, कृषि उपकरणों, उन्नत बीजो का प्रचलन तथा रासायनिक उर्वरको के उपयोग में वृद्धि ने उत्पादन तथा उत्पादकता के स्तर को समुनन्त किया। कृषि के उन्नत के साथ कृषि विपणन व्यवस्था का उन्नत होना आवश्यक है, क्योंकि यह अनुभव किया जाने लगा है कि कृषि उत्पादों के विपणन का उतना ही महत्व है जितना स्वतः उत्पादन का वस्तुतः विपणन की क्रिया का अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका होती है, क्योंकि इसके द्वारा उपभोग और उत्पादन में सन्तुलन ही नही वरन् अधिक विकास का स्वरूप भी निर्धारित होता है।

 

KEYWORDS: राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना, भारतीय अर्थव्यवस्था, कृषि विपणन तकनीक।

 


 


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कृषि भारत की आत्मा यदि यह कहा जाए तो अतिश्योक्ति होगी, भारत में रहने वाला अधिकांश जनसमुदाय परोक्ष या फिर अपरोक्ष रूप से कृषि कार्यों से जुडा  हुआ है। और शायद ही विश्व में कोई ऐसा व्यक्ति होगा जो कृषि उपजों का उपभोग करता हो, इन सबके बावजूद कृषि कार्य में व्याप्त रिस्क इसको जोखिम भरा उद्यम बनाता हैै। कृषि कार्यों में शायद  ही कोई ऐसी गतिविधि होगी जिसमें पूर्वनिश्चितता हो, कृषि में रिस्क होने का सबसे बडा कारण प्रकृति की मार है, जलवायु बदलाव, ओला, पाला, सूखा, भूस्खलन, रोग, कीट इत्यादि घटनायें इसमें रिस्क की मात्रा को बढाती है। इसके अलावा मनुष्य द्वारा की जा रही प्राकृतिक  हेड से भी कृषि को काफी हद तक नुकसान बहन करना पड रहा है, कृषि आधुनिक अर्थव्यवस्था के साथ भी संलग्न है अर्थव्यवस्था में होने वाली तेजी या मंदी से कृषि काफी हद तक प्रभावित होती है। इन्ही सभी घटनाओं के कारण आज कृषि से जुडा हुआ बेचारे किसान की हालत दिन प्रतिदिन बद से बत्तर होती जा रही है। कई स्थानों में किसान इस प्रकार की दयनीय स्थिति में है कि उनको दो वक्त की रोटी नसीब नही हो पा रही है  और किसानो की सबसे बडी समस्या है उनके द्वारा लिया गया कर्ज जिसके मकडजाल में किसान इस तरह फंसता है कि वह दूसरा उतर नही पात शायद इसी वजह से कई स्थानों से किसानों की खुदखुशी की खबरे आती है ये घटनायें हमारे राष्ट्र के लिए दुखपूर्ण है। इन किसानों को रिस्क से सुरक्षा प्रदान करने हेतु बीमा की जरूरत है, इस प्रयोजन को रिस्क से सुरक्षा करने हेतु बीमा की जरूरत है, इस प्रयोजन को पूर्ण करने हेतु इस कृषि बीमा योजना को प्रारंभ किया गया है। इस योजना के विषय में किया गया शोध का कार्य पूर्ण होने के कगार पर है। चूंकि अनुसंधान का कार्य एक अनवरत रूप से चलित प्रणाली है, यह यथार्थ पूर्ण, निष्कर्षों तथा नये-नये सुझाव से उचित तथा  नये-नये सुझाव से उचित तथा जल उपयोगी रणनीति तैयार करने में सहायता देती है। मुख्य रूप से समाज एवं अर्थव्यवस्था से जुडे हुए शोध कार्यसे वे समस्त प्रणलियाँ एवं पद्धतियाँ परिस्कृत होती है जिनमें अभी और सुधार की संभावना है। इसके उपरांत एक नया ज्ञान, एक नवीन तथ्य ज्ञात कोष के भंडार में जनहित की भलाई हेतु जाकर भंडारित हो जाता है। शोधकार्य के अंत में अभी तक किए गए शोध विषय से संबंधित समस्त तथ्यों का निचोड, संक्षिप्त रूप में रखने का प्रयत्न है।

 

 

कृषि हमारे राष्ट्र में एक उद्यम या फिर कोई गतिविधि मात्र है, यह यहाँ के लोगों के स्वासों में बसती है यह कथन में कोई ज्यादा अतिश्योक्ति नही है। हमारे राष्ट्र में रहने वाले सम्पूर्ण जनमानस का फीसदी गांवों में निवास करते हैं तथा मात्र फीसदी लोग ही शहरी जीवन यापन करते हैं। परंतु ये भी परोक्ष या फिर अपरोक्ष रूप से कृषि से तथा इसके उपजो से जुडे हैं। एवं हमारे ग्रामीण अंचलों में रहने वाले रहवासियों, किसानों की यह जीवनयापन का प्रमुख आधार है। कृषि के बिना इनके अस्तित्व की कल्पना ही नही की जा सकती हमारे राष्ट्र की सम्पूर्ण जनमानस का  फीसदी कृषि  गतिविधियों में लगा हुआ और इसे अपने भरण पोषण करता है। राष्ट्र की अर्थव्यवस्था को तीन भागों में बांटा जायें तो प्राथमिक भाग में कृषि ही आती है। कृषि का राष्ट्र की अर्थव्यवस्था में कृषि का महती योगदान है। दूसरे भाग में उद्योग एवं व्यापार को स्थान दिया गया है। इन उद्योग से मानवीय जरूरतों के अनुरूप वस्तुओं का निर्माण होता है। इसमें त्ंू उंजमतपंस की आपूर्ति भी कृषि के माध्यम से की जाती है। अतः बिना कृषि के उद्योग भी बेकार है। अतिस्तत्वहीन है।

 

हमारे राष्ट्र की कृषि मौसम आधारित है। यहाँ की कृषि मौसमीय घटनाओं के आधारपर काफी प्रभावित होती है। इसी वजह से यहाँ की कृषि को रिस्क युक्त उद्यम माना गया है। मौसमीय विपदायें जैसे- अतिवृष्टि, अल्पविष्ट, चक्रवात, ओला, पाला, तेज हवायें, लूं, शीत इत्यादि कृषि उपज को काफी ज्यादा मात्रा में परोक्ष रूप से नुकसान पहुंचाते हैं। कृषि उपजों में लगने वाले रोग कीटों, बीमारियों आदि की वजह से भी इसमें नुकसान की आशंका बनी रहती है। मृदा का अवस्थ्य होना ज्यादा से ज्यादा रसायनिक उर्वरकों के प्रयोग के कारण मृदा की गुणवत्ता में गिरावट आना कृषि उपजों की यथा उचित रखरखाव की व्यवस्था, परंपरागत रूप से कृषि करान कृषि का बाजारीकरण हो पाना, उपजों का असुरक्षित होना इत्यादि कई सारे कारक है जो कि कृषकों को दूसरे उद्यमों की अपेक्षा ज्यादा अनिश्चितता युक्त एवं रिस्क युक्त बनाते हैं।

 

भारतीय कृषि में व्याप्त रिस्क तथा इसकी अनिश्चितता से सुरक्षा प्रदान करने हेतु बीमा की नितांत जरूरत थी। यह किसानों को इसमें उत्पन्न होने वाले रिस्क तथा होने वाले नुकसान की भरपाई कर उनके निश्चतता एवं सबलता देती है। यह किसानों की आमदनी को स्थाई करने एवं उनको भविष्य के रिस्क से सुरक्षित करने का एक सटीक रणनीति है। किसानों के उपर होने वाले अप्रत्याशित एवं अनुचित कर्ज से बचाने हेतु यह एक आसान माध्यम है। इसके अंतर्गत किसान सामान्य किस्तों में बीमें के अधिशुल्क की राशि अदा कर कम दर पर कर्ज प्राप्त कर लेते हैं। और कृषि में होने वाले नुकसान से अपने आप को सुरक्षित करा पाते हैं।

हमारे राष्ट्र में हर जगह सामाजिक, राजनैतिक, वातावरणीय, धार्मिक, धरातयी विभिन्नतायें सहज ही दिख जाती है। यहाँ की धरातलीय विभिन्नता एवं वातावरणी विभिन्नता काफी ज्यादा व्याप्त है। इस वजह यहाँ की कृषि उपजों एवं कृषि पद्धतियों में काफी ज्यादा विभिन्नता पाई जाती है। अलग-अलग स्थानोें पर पाई जाने वाली कृषि उपज तथा वाणिज्यिक कृषि उपज, उद्यानिक कृषि उपजों में काफी विभिन्नतायें है इस वजह से हर स्थानों में रिस्क को आंकलित करने में तथा सम रूपी नीतियों को लागू करने मे ंकाफी ज्यादा समस्या आती है।

 

पूर्व शोध की समीक्षा:-

रामास्वामी भारत, टी.एल. राय (2004) -

इन्होने अपने शोध पत्र में कृषि बीमा के उत्पादन में समूहन रैखिक योज्य माॅडल को बतलाया है। इनके शोधपत्र में कई स्थितियों में समूहन रैखिक योज्य माॅडल की उपयोगिता एवं इसका कृषि बीमा में प्रयोज्यता को सारगर्भित किया गया है। इन्होने निष्कर्ष दिया की व्यक्तिगत  रिस्क को प्रतिव्यक्ति के आधार पर ही एवं बडे समंकों को लेकर स्थितियों पर कार्य किया जाए।

 

कमल किशोर्र इंगोले (2010) -

इन्होनें ‘‘वाशिम जिले की किसानों की आत्महत्या प्रवृत्ति एक समाज शास्त्री अध्ययन’’ शोधकार्य हेतु  2010 में डाक्टरेट की उपाधि प्रदान की गयी। इन्होने किसानों द्वारा की जा रही खुदकुशी की प्रमुख वजह किसानों के उपर बढता कर्ज को बताया इस शोधकार्य में इन्होने यह स्पष्ट किया कि किसानों को सबसे ज्यादा नुकसान प्राकृतिक आपदाओं की वजह से होता है। इन्होने स्पष्ट किया की किसानों के उपर  बढते कर्ज के दबाव को कम करने के लिए सरकारें असफल रही।

 

मनोज बोहरे (2003) -

इनका लघुशोध प्रबंध ‘‘इन्दौर जिले में उद्यानिकी कृषि’’ वर्ष 2003 में प्रकाशित हुआ इनके द्वारा  जिले में उद्यानिकी तथा शाक सब्जियों एवं फलों के उत्पादन इनके विकास एवं संवर्धन हेतु  किये जा रहे प्रयासों के बारे में  अध्ययन किया।  इन्होने यह स्पष्ट किया कि जिले में फूलों के विकास हेतु तथा औषधियों के संवर्धन हेतु प्रयास किये जा रहे हैं। इसके कारण इनका क्षेत्र बढा है। परंतु फलांे एवं शाक सब्जियों के विकास एवं संवर्धन हेतु ज्यादा प्रयास नही किये गये। जिसके कारण इनका क्षेत्र घटा है। किसानों को कृषि आधुनिकीकरण हेतु जागरूक करने की आवश्यकता है। किसानों द्वारा अधाधुन्ध रूप से प्रयोग में लायी जा रही खादों एवं रसायनों से पर्यावरण को भी काफी नुकसान हुआ है।

 

राजीव सेम्युअल (2006) -

इनका शोध प्रबंध ‘‘मध्यप्रदेश के कृषि विकास में संस्थागत वित्त की भूमिका (इन्दौर जिले के विशेष संदर्भ में)’’ हेतु वर्ष 2006 में इनको डाक्टरेट की उपाधि से नवाजा गया। इन्होने अपने शोध प्रबंध में यह बतलाया कि कृषि का विकास देश के आर्थिक उत्थान हेतु आवश्यक है। देश में फैली बेरोजगारी, गरीबी, आर्थिक कुचक्रता, क्रयशक्ति क्षमता मे लगातार हो रहा हृास इत्यादि समस्याओं को काफी हद तक कृषि संवर्धन के द्वारा हल किया जा सकता है। इन्होने कृषि के संवर्धन तथा विकास पर  बल दिया। काॅनराय एट आल (2001) भारत में ग्रामीण कृषक परिवारों के पास आय के साधन के पशु उपलब्ध है। राष्ट्रीय स्तर पर पशुधन की आबादी बढ़ी है हालांकि एक क्षेत्रीय पैमाने और अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में विशेष रूप से स्थिति बहुत अलग और अधिक जटिल है, उदाहरण के लिए ग्रामीण क्षेत्र के भीतर पशुधन बढ़ी जाती है तथा शहरी क्षेत्रों में पशुधन की आबादी कम होती है। जिससे ग्राीमण किसानों की स्थिति सुधर रही है।

 

ब्रिजेन्द्र पाल सिंह (2000) भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ कृषि है। इसके विकास से अर्थव्यवस्था में दृढ़ता आती है। राष्ट्रीय आय में इसका योगदान 34 प्रतिशत के आसपास है। गत वर्षो में खाद्यान तथा व्यावसायिक फसलों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। कृषि उत्पादन को प्रभावित करने वाले तत्वों में प्राकृतिक और आर्थिक दोनो महत्वपूर्ण है। विगत दो-तीन दशकों में भारत में द्वितीयक क्षेत्र एवं तृतीयक क्षेत्र को तीव्र गति से विस्तार हुआ है प्रभावी देश की कार्यशील जनसंख्या का 52 प्रतिशत प्राथमिक क्षेत्र पर आश्रित है। देश में कृषि 115.5 मिलियन कृषक परिवारों की आजीविका का माध्यम है। यहाँ तक कि सकल राष्ट्रीय उत्पाद का लगभग 15 प्रतिशत भाग कृषि उसकी सहायक क्रियाओं से प्राप्त होता है। भारत में अनेक महत्वपूर्ण उद्योग प्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर देश की 1.21 अरब से अधिक जनसंख्या के खाद्यान खाद्य पदार्थो की आपूर्ति कृषि क्षेत्र से ही की जाती है। करोड़ों पशुओं को प्रतिदिन चारा कृषि क्षेत्र से ही प्राप्त होता है।

 

डाॅ. आर. के. भारतीय (2006) भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकतर लघु तथा सीमांत कृषकों खेतिहर मजदूरों तथा अन्य श्रमिकों, शिल्पियों, व्यवसायिक एवं सेवा करने वाले परिवारों का ही बाहुल्य है। परन्तु आज भी इनमें से अधिकांश परिवार गरीबी रेखा के नीचे जीवन व्यतीत कर रहे हैं! अतः यह कहा जा सकता है कि भारत का समाजिक एवं आर्थिक विकास ग्रामीण क्षेत्रों के बुनियादी विकास पर ही आधारित है। ग्रामीण विकास की अनेकोनेक समस्याएं जिनमें प्रमुख रूप से आर्थिक अधोसंरचना, कृषि, लघु एवं कुटीर उद्योग समान्वित विकास की समस्याएं है!

 

शोध प्रविधि:-

रीवा जिले में स्थित मण्डियों में से निदर्शन विधि का अनुप्रयोग करते हुए जिले से सभी मण्डियों का अध्ययन कर कुछ चिन्हित मण्डियों को प्रतिक अध्ययन के लिए चुना जाएगा। मण्डियों के चयन में उनकी स्थिति कार्यक्षेत्र आदि का ध्यान रखते हुए जिले में सभी तहसीलों में से एक-एक विनियमित मण्डी तथा जिले में एक प्राथमिक स्तर में गांव में स्थित विनियमित मण्डी का चयन कर अध्ययन किया जावेगा।

 

मण्डी सम्बन्धी तथ्यों की जानकारी प्राप्त करने हेतु प्रश्नावली बनाकर मण्डी समिति के पदाधिकारियों एवं मण्डी सचिवो से सम्पर्क अभियान द्वारा विषय से सम्बन्धित जानकारी एकत्रित कर उपक्रम बनाया जाएगा। कृषि सम्बन्धी उत्तर प्राप्त करने के लिए स्तरवार निदर्शन विधि का प्रयोग किया जावेगा। अन्त में सांख्यिकी विश्लेषण के बाद शोधकर्ता द्वारा प्रतिवेदन प्रस्तुत कर जाएगा इस सम्बन्ध में एकत्रित किए गये प्राथमिक द्वितीयक एंव गौर आंकड़े हेतु किया गया है।

 

कृषि विपणन तकनीकी में सुधार, कृषि उत्पादन में वृद्धि, मध्यस्थों की समाप्ति, कृषि विनिमय हेतु वित्तीय सुविधाएॅ, कृषि उत्पाद मूल्य में वृद्धि तथा कृषि विपणन का व्यावसायिक कार्य, व्यवसायिक अनुभव, पूॅजी निवेश, छोटे कृषि व्यापारियों को संरक्षण कृषि के लिए वित्तीय सुविधाएॅ, व्यावसायिक प्रशिक्षण, यातायात का विकास, भण्डारण प्रक्रिया में सुधार, व्यावसायिक स्थिति का मूल्यांकन, मूल्य में स्थिरता जैसे अनुकूल प्रभाव पड़ेगा। कृषि विपणन में जमाखोरी की समाप्ति, कृषि क्षेत्र को औद्योगिक क्षेत्र मानने के साथ-साथ गांवो में कृषि उत्पाद के विक्रय हेतु आवश्यक सुविधाएॅ प्रदान करने का प्रयास होगा। कृषि विपणन क्षेत्र में सहाकरी समितियों के विकास हेतु कृषि विपणन क्षेत्र में सहकारी समितियों के विकास हेतु सरकारी एजेन्सी द्वारा कम मात्रा का पूर्व निर्धारण उत्पादक व्यापारियों से कृषि आय में वृद्धि जैसे उपायों को अपनाने से कृषि विपणन तथा कृषि उपज में उत्तरोत्तर वृद्धि होगी। कृषि उपकरणों वित्तीय सुविधाओं में वृद्धि के साथ ही अन्य आवश्यक मूलभूत सुविधाओं में विकास हेतु उपाय किये जायेगे। सहकारी विपणन व्यवस्था को प्रोत्साहन दिया जाएगा उत्पादको को उचित मूल्य दिलाए जाने के साथ ही पूंजीवादी बाजार को रोकने का प्रयास किए जाएगा, साथ ही कृषि विपणन व्यवसाय का विस्तार किया जाएगा, विस्तार के साथ ही देश वे अन्य विकसित राज्यों की कृषि विपणन के समान किया गया है।

 

शोध के उद्देश्य:-

कृषकों की अर्थिक दशाओं का अध्ययन कर उनका जीवन स्तर ऊपर उठाने हेतु आवश्यक सुझाव प्रस्तुत करना।

ग्रामीण कृषि प्रक्षेत्र की समस्याओं को दूर करने का समन्वित प्रयास भी है? इसके अन्तर्गत केवल लघु कृषकों की पहचान की जा सकेगी वरन् उन्नयन हेतु आवश्यक साधन/सुझाव उपलब्ध कराना।

जिले में संचालित सहकारी बैंकों के विभिन्न योजनाओं से लाभान्वित कृषकों के आर्थिक विकास की दर प्राप्त कर उसकी समीक्षा करना।

संस्थागत बैंकों की कार्यप्रणाली एवं ब्यूह रचना का अध्ययन।

शासन के द्वारा दी जाने वाली सहायता एवं सहयोग के फलस्वरूप हितग्राहियों के रोजगार प्रभाव का अध्ययन करना।

शासकीय एवं गैर शासकीय संस्था द्वारा चलाये जा रहे विभिन्न कार्यक्रमों का अध्ययन करना।

घटित समस्याओं को खोजना, उनका अध्ययन करना साथ उनके परिणामों एवं प्रभावों का अध्ययन

कृषकों की आर्थिक दशा के सफलता हेतु समुचित साधनों एवं उपायो को सुझाना जिससे भविष्य में इन योजनाओं को और प्रभावशाली बनाया जा सके।

 

परिकल्पनायें -

1. राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना कृषि के उत्पादन तथा कृषकों की आये जोखिमों से सुरक्षा प्रदान करने में अपना योगदान दे रही है, और साथ ही जिन किसानों ने बीमा कराया है उनको पर्याप्त रूप में क्षतिपूर्ति हो रही है।

2. कृषि कार्यों में उत्पादन क्रियाओ, विनणन क्रियाओं, उत्पाद का उचित मूल्य, आय इत्यादि में अनिष्चितताये बनी रहती है। इसके लिए इस जोखिमों से सुरक्षा हेतु कृषि बीमा की जरूरत है।

3. राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना अपने उद्देष्य को पूरा करने में सफल रही।

4. कृषि बीमा योजना की कार्यप्रणाली काफी कुषल है।

5. राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना द्वारा बीमित किसानों को काफी लाभ पहुंचा है।

 

शोध सीमाएँ -

शोधार्थी द्वारा लिये गये शोध विषय ‘‘राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना का प्रबंध एवं क्रियान्वयन रीवा जिले के विशेष संदर्भ में’’ अनुसंधान कार्य की निम्नलिखित सीमायें हैं-

() शोध कार्य के लिए चुने गये प्रत्येक गांवों से सैम्पल के केवाल रूप में 100 परिवारों से अनुसूची भरवाई गयी।

() इस शोध कार्य में पूरे जिले के गांवों को नही लिया गया केवल कुछ गांवों को ही चुना गया।

() शोध कार्य का क्षेत्र सीमित है।

() समंको के संकलन हेतु अनुसूची विधि का उपयोग किया गया।

 

शोध का महत्व एवं कठिनाइयाँः-

कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार है जिसके समुचित विकास के बिना किसी भी प्रकार की आम जीवन से जुड़ी विकास की गतिविधियों की परिकल्पना नहीं की जा सकती। विभिन्न स्रोतों से प्राप्त होने वाली जानकारियों के अनुसार देश का सर्वाधिक वर्ग कृषि से संबंधित है देश की कृषि व्यवस्था और कृषि नीति ऐसी है कि कृषि अभी भी पुरातन नीतियों पर आधारित है शासन और प्रशासन स्तर पर दीर्घकालिक सहकारी बैंकिंग नीतियाॅ निर्मित होती है। जिनका संबंध कृषि क्षेत्र की वास्तविकता से नहीं होता। कोरे सिद्धंात पर आधारित सहकारी बैंकिंग की नीतियों के चलते कृषि आज भी नई परम्पराओं को स्वीकार नहीं कर पाती। देश के कुछ क्षेत्रों को अगर छोड़ दे तो कृषि फर्म और कृषक का नाम आते ही एक विचित्र पीड़ा का बोध होता है। भारत का किसान आज भी दो जून की रोटी के लिए मोहताज है उर्वरताविहीन खेत, लगातार घटते कृषि संसाधन, पढ़े लिखे विकासशील लोगों का कृषि से दूर हटना भौतिक संसाधनों की बढ़ती कीमतें समय अनुकूल बीज खाद एवं अन्य सहायक वस्तुए कृषि यंत्रों की भारी कीमतें उत्पादन विक्रय की साख नीति का आभाव आदि के चलते रीवा जिले की कृषि अभी भी अधोगामी है।

 

बीमा योग्य राशि की कवर सीमा -

(1) राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना के अंतर्गत बीमा स्वीकार करने वाले कृषक  के विकल्प से बीमित फसल के सकल उत्पाद तक प्रीमियम राशि को बढाया जा सकता है। कृषक अपनी फसलों के मूल्य को 150 फीसदी तक बढाया जा सकता है। शर्त यह है कि फसलें सूचित होेनी चाहिए तथा कृषक इसकी प्रीमियम के भुगतान हेतु तत्पर हो।

(2) ऋण स्वीकार किये कृषकों के लिए बीमा प्रीमियम की राशि कृषकों द्वारा प्राप्त किये गये एडवांश में सम्मिलित कर दिया जायेगा।

(3) ऋण स्वीकार किये गये कृषकों के लिए बीमा प्रीमियम की राशि कलस के उत्पादन हेतु, प्राप्त किये नये एडवांस के बराबर होगी।

(4) फसलों के लिए ऋण प्रदान करने में या फिर वितरित करने में भारत के केन्द्रीय बैंक भारतीय रिजर्व बैंक एवं भारत के कृषि बैं भारतीय राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण बैंक नाबार्ड के निर्देश माने जायेगें।

 

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National Agriculture Insurance Scheme के संपूर्ण एवं विस्तृत जानकारी प्राप्त करने हेतु जिले में तहसील स्तर पर इसके विकास की जानकारी लेना जरूरी है। इसके लिए महत्वपूर्ण सूचनाओं को इस शोध विषय में दर्शाया गया है जो निम्नलिखित है-

 

() चयनित स्थान -

रीवा जिले के अंतर्गत पटवारी हल्का को शामिल किया गया है

 

() चयनित कृषि उपज -

सीजन के आधार पर यदि देखा जाय  तो दोनों सीजन में भिन्न-भिन्न कृषि उपजों को इस नीति हेतु चयनित किया गया है।

 

() रबी के सीजन में -

इस सीजन में  जिले के विकासखंडों  मंे इस योजना हेतु चयनित कुछ कृषि उपज निम्नलिखित है-

गेहूं सिंचित, गेहूं असिंचित, चना

 

() खरीफ सीजन में -

इस सीजन में इस योजना में कृषि उपज निम्नलिखित है-

धान सिंचित, धान असिंचित, सोयाबीन, अरहर आदि।

 

रीवा जिले के अंतर्गत राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना की प्रगतिः

इस बीमा योजना की प्रगति एवं प्रभावों का सूक्ष्मता के साथ अध्ययन करने हेतु रीवा जिले में राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना में हुई प्रगति एवं प्रभावों के तथ्यों को  समंकों के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। योजना के विकास के अध्ययन मेें मात्र उन्ही समंकों को वरीयता प्रदान की गई है जो राज्य में जिले स्तर पर इस कृषि बीमा योजना की प्रगति के अध्ययन हेतु आवश्यक है। जिले स्तर पर राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना की प्रगति के अध्ययन हेतु आवश्यक है जिले स्तर पर राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना के प्रगति का अध्ययन मुझे एवं आश्चर्य के साथ यह बोलने में काफी संकोच मुझे बडे दुःख एवं खेद के साथ यह बतलाने में काफी संकोच हो रहा है कि बडे प्रयत्न के बावजूद रीवा जिले के योजना से संबंधित गलतियों में ब्लाक ब्लाक एवं तहसील स्तर पर आंकडे उपलब्ध नही थे साथ ही जिले में इस कृषि  बीमा योजना से संबंधित विभागों की बेवासाइटों में भी तहसील एवं ब्लाक स्तर के समंक प्राप्त नही हो सके। समय के अभाव की वजह से एवं तहसील तथा ब्लाक स्तर पर आंकडे मिलने के कारण जिला स्तर पर ही समंकों का सारणीयन प्रस्तुतीकरण एवं विश्लेषण किया जा रहा है।

 

स्रोत - वार्षिक रिर्पोट भारतीय राष्ट्रीय कृषि बीमा कम्पनी लिमिटेड भोपाल 2017

 

इस  कृषि बीमा योजना के अंतर्गत रबी सीजन में वर्ष 2011-12 में 6138 कृषकों ने बीमा करवाया था इसके बाद अगले सीजन में 16546 कृषकों ने ऋण प्राप्त किया जो गत वर्ष की तुलना में कृषक अधिक थे, प्रतिशत के रूप में प्रतिशत ज्यादा थे, इसी प्रकार से वर्ष 2013-14 में ऋणी कृषकों की संख्या 38952 थी जो कि गतवर्ष की तुलना में बढी एवं इनकी संख्या में प्रतिशत की वृद्धि हुई इसके उपरांत वर्ष 2014-15 में इन ऋणी कृषकों की संख्या 31815 थी जो कि इनकी संख्या में प्रतिशत की वृद्धि हुई। इसी प्रकार से वर्ष 2015-16 में ऋणी कृषकों की संख्या बढकर 34183 हो गई जो गत वर्ष की तुलना में इनकी संख्या बढ गई जो कि गत वर्ष की तलना प्रतिशत वृद्धि हुई इसी प्रकार से वर्ष 2016-17 में इन ऋणी कृषकों की संख्या गत वर्ष की तुलना में बढकर 46670 हो गई जो कि गत वर्ष की तुलना में इनकी संख्या बढी एवं प्रतिशत में इनकी संख्या प्रतिशत बढी।

 

निष्कर्ष:-

कृषि विपणन तकनीकी में सुधार, कृषि उत्पादन में वृद्धि, मध्यस्थों की समाप्ति, कृषि विनिमय हेतु वित्तीय सुविधाएॅ, कृषि उत्पाद मूल्य में वृद्धि तथा कृषि विपणन का व्यावसायिक कार्य, व्यवसायिक अनुभव, पूॅजी निवेश, छोटे कृषि व्यापारियों को संरक्षण कृषि के लिए वित्तीय सुविधाएॅ, व्यावसायिक प्रशिक्षण, यातायात का विकास, भण्डारण प्रक्रिया में सुधार, व्यावसायिक स्थिति का मूल्यांकन, मूल्य में स्थिरता जैसे अनुकूल प्रभाव पड़ेगा। कृषि विपणन में जमाखोरी की समाप्ति, कृषि क्षेत्र को औद्योगिक क्षेत्र मानने के साथ-साथ गांवो में कृषि उत्पाद के विक्रय हेतु आवश्यक सुविधाएॅ प्रदान करने का प्रयास होगा। कृषि विपणन क्षेत्र में सहाकरी समितियों के विकास हेतु कृषि विपणन क्षेत्र में सहकारी समितियों के विकास हेतु सरकारी एजेन्सी द्वारा कम मात्रा का पूर्व निर्धारण उत्पादक व्यापारियों से कृषि आय में वृद्धि जैसे उपायों को अपनाने से कृषि विपणन तथा कृषि उपज में उत्तरोत्तर वृद्धि होगी। कृषि उपकरणों वित्तीय सुविधाओं में वृद्धि के साथ ही अन्य आवश्यक मूलभूत सुविधाओं में विकास हेतु उपाय किये जायेगे। सहकारी विपणन व्यवस्था को प्रोत्साहन दिया जाएगा उत्पादको को उचित मूल्य दिलाए जाने के साथ ही पूंजीवादी बाजार को रोकने का प्रयास किए जाएगा, साथ ही कृषि विपणन व्यवसाय का विस्तार किया जाएगा, विस्तार के साथ ही देश वे अन्य विकसित राज्यों की कृषि विपणन के समान किया जाएगा।

 

सुझाव:-

कृषि क्रियाओं में कृषि उपजों को होने वाले नुकसान की भरपाई की राशि तथा उनको प्राप्त करने की प्रक्रिया का चुनाव वहां के किसानों के परामर्श से कराने की जरूरत है।

इस नीति की कार्यप्रणाली को और ज्यादा स्पष्ट तथा पारदर्शी बनाये जाने की जरूरत है।

इससे संबंधित कर्मचारियों, अधिकारी वर्ग के लोगों को समय-समय तकनीकी युक्त परीक्षण दिये जाने की जरूरत है।

समस्त स्थानों के लिए एक नीति, एक अधिशुल्क, एक बीमा करे जाने की जरूरत है, इससे किसानों के मन में इसके प्रति विश्वास बढता है।

योजना को संचालित करने वाले अभिकरणों की संख्या में वृद्धि करे जाने की जरूरत हे। जिससे की ज्यादा से ज्यादा स्थान पर ये संस्थान स्थापित हों और किसानों से ज्यादा संपर्क में रहे।

इसके विज्ञापन की जिम्मेदारी मुख्य अभिकरणों को दे देती चाहिए जिससे कि ये अपना कार्य और जिम्मेदारी के साथ करें।

समय-समय पर योजना का लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए और कर्मियों को इसको पूर्ण करेन हेतु जोर देना चाहिए जिससे की कर्मी कुशलता के साथ  कार्य  करें।

हुए नुकसान की भरपाई का समय निर्धारितकर देना चाहिए तथा इसमें और पारदर्शिता लाया जाना चाहिए जिससे की नीति के प्रति किसानों का विश्वास बढे।

 

संदर्भ ग्रंथ सूची:-

1. अग्रवाल एन.एल., भारतीय कृषि का अर्धतंत्र, राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी,

2. अग्रवाल, एन.एल. कृषि अर्थशास्त्र राजस्थान हिन्दी गं्रन्थ अकादमी जयपुर

3. भारती एवं पाण्डेय भारतीय अर्थव्यवस्था मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी

4. डाॅ. अशु शहल यांशी एवं रेनु कुमारी, जैविक खेती में महिलाओं की भागीदारी कुरूक्षेत्र मासिक पत्रिका - 2009

5. रास, निहारेजन, मौर्य तथा मौर्योत्तर काल, में कमिलन एंड कंपनी पब्लिेकशन नई दिल्ली 1979 पे.नं. 84

6. सरकार युदुनाथा, मुगल सम्राज्य का पतन, तृतीय खंड, शिवलाल अग्रवाल एंड कंपनी पब्लिेकशन आगरा द्वितीय संस्करण 1972 पे.नं. 86

7. श्रीवास्तव आर्शिवादी लाल, अकबर महानः भाग-2 शिवलाल अग्रवाल एंड कंपनी पब्लिकेशन द्वितीय संस्करण 1972 पे.नं. 126-130

8. नारायण दुलीचंन्द्र व्यास, अन्नो की खेती, प्रकाशक मार्तण्ड उपाध्याय मंत्री, सस्ता साहित्य मंडल नई दिल्ली, 1956

9. सिंह प्रताप, आधुनिक भारत का इतिहास 1656-1885 तक दिल्ली रिसर्च 1982 पे. नं. 196

10. दुबे सत्यनारायण, प्राचीन भारत का इतिहास, शिवलाल अग्रवाल एंड कंपनी पब्लिकेशन आगरा 1980 पे.नं. 125-125

11. डाॅ. नारायण दुलीचंद व्यास, कृषि दीपिका, मार्तण्ड उपाध्याय मंत्री संस्ता साहित्य मंडल पब्लिकेशन नई दिल्ली प्रथम संस्करण 1967 पे. नं. 120-124

12. बासम .एल. अद्भुत भारत, शिवलाल अग्रवाल पब्लिकेशन आगरा तृतीय संस्करण 1968 पे. नं. 51

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Received on 07.12.2021         Modified on 21.12.2021

Accepted on 29.12.2021         © A&V Publication all right reserved

Int. J. Ad. Social Sciences. 2021; 9(4):198-206.